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LIC को मालामाल कर रहे लापरवाह पॉलिसीधारक, यूं ही छोड़ दिए 5000 करोड़

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नई दिल्ली! यूं तो इंश्योरेंस कराने का मकसद आपदा की स्थिति में मदद मिलना होता है, लेकिन हम भारतीयों के नजरिए में इसका मकसद कुछ ओर ही होता है. जी हां, भारत में अधिकतर लोग इंश्योरेंस अपने भविष्य को सुरक्षित रखने के लिए नहीं बल्कि टैक्स बचाने के लिए करते हैं. इससे जुड़े जो ताजा आंकड़े सामने आए हैं वो बेहद हैरान करने वाले हैं. आंकड़े बताते हैं कि नियमित प्रीमियम भरने में लगी एक चौथाई रकम हर साल बेकार चली जाती है. इसलिए, देश में इंश्योरेंस खरीदनेवालों का पर्सिस्टेंसी रेशियो नीचे है. बात करेें पर्सिस्टेंसी रेशियो की तो यह ऐसे पॉलिसीधारकों का अनुपात होता है जो इंश्योरेंस खरीदने के एक साल बाद भी प्रीमियम भरना जारी रखते हैं.

आंकड़ों के मुताबिक, देश की ज्यादातर इंश्योरेंस कंपनियों के कम-से-कम 25 फीसदी पॉलिसीधारक सालभर बाद ही प्रीमियम भरना बंद कर देते हैं. एक साल के अंदर पॉलिसी लैप्स होने पर बीमाधारक अपनी लगभग पूरी रकम खो देता है. यानी, उसे पैसे बिल्कुल भी वापस नहीं होते क्योंकि इंश्योरेंस कंपनियां कमीशन समेत अन्य लागत जोड़कर प्रीमियम की रकम से काट लेती हैं. मिली जानकारी के अनुसार, वित्त वर्ष 2016-17 में सरकारी पॉलिसी प्रदाता कंपनी एलआईसी ने 22,178.15 करोड़ रुपये मूल्य की रेग्युलर प्रीमियम पॉलिसीज बेची. यह आंकड़ा देश की पूरी इंश्योरेंस इंडस्ट्री का 44% है. अगर इनका चौथाई हिस्सा यानि 25% लैप्स रेशियो निकालें तो इसका मतलब है कि लोगों ने एक वित्त वर्ष में अकेले एलआईसी के पास 5,000 करोड़ रुपये यूं ही छोड़ दिए.

पॉलिसीधारकों द्वारा इस तरह पॉलिसी को बीच में ही छोड़ जाने के पीछे अलग अलग कारण बताए जा रहे हैं. इन्हीं में से एक ये है कि उन लोगों को लगता है कि उन्होंने गलत पॉलिसी ले ली है और इसका उन्हें कोई फायदा नहीं होगा. दूसरे शब्दों में कहें तो कंपनियां या एजेंट कई बार गलत दावे करके पॉलिसी बेच लेते हैं, लेकिन बाद में जब पॉलिसीधारक पूछताछ और जांच-पड़ताल करता है तो उसे लगता है कि उसने गलत जगह पैसे लगा दिए और नतीजा ये होता है कि वह किश्त भरना बंद कर देता है. रोचक बात ये है कि जो लोग अपना सारा प्रीमियम भरते हैं, वे भी ली हुई पॉलिसी के बारे में परिजनों को नहीं बताते और नतीजा ये होता है कि निवेशकों के करीब 5,000 करोड़ रुपये इंश्योरेंस कंपनियों के पास यूं पड़े हैं और इसका कोई दावेदार ही नहीं है.

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