मुंबई!महाराष्ट्र में जो चुनावी नतीजे आए हैं उससे यह तो जाहिर हो गया है कि मोदी लहर के बावजूद यहां भाजपा और शिवसेना को एकजुट होकर भी अपनी जीत के लिए काफी मशकक्त करनी पड़ी है जिससे वे सिर्फ अपनी पुरानी सीटों को ही बचा पाए हैं. उधर कांग्रेस-एनसीपी गठबंधन में एनसीपी भी अपनी जमीन पर कायम है. लेकिन कांग्रेस को सेकुलर वोट बंटने का नुकसान हुआ है. 2014 में भाजपा को 27.56 फीसदी, शिवसेना को 20.82 फीसदी, एनसीपी को 16.12 फीसदी और कांग्रेस को 18.29 फीसदी वोट मिले थे.
जबकि 2019 के चुनाव में भाजपा को 27 फीसदी, शिवसेना को 23 फीसदी, एनसीपी को 17 फीसदी और कांग्रेस को 15 फीसदी वोट हासिल हुए हैं. 2014 के चुनाव की अपेक्षा इस बार के चुनाव में भाजपा को आधा फीसदी वोट कम मिले हैं और शिवसेना ने दो फीसदी से ज्यादा वोट पाकर भी अपनी सीटें बढ़ाने में कामयाब नहीं हो पाई है.
राज्य में भाजपा की स्थिति कमजोर थी जिस वजह से उसने शिवसेना के साथ गठबंधन किया. साढ़े चार साल से मोदी और भाजपा को लगातार कोसने वाली शिवसेना ने हिंदुत्व के नाम पर भाजपा से हाथ मिलाया. लेकिन इससे भाजपा और शिवसेना के कार्यकर्ता नाराज थे. अपनी कमजोर कड़ी को देखते हुए भाजपा ने एनसीपी और कांग्रेस में भी सेंध लगाई और जीतने वाले नेताओं को टिकट देने का लोभ देकर पार्टी में शामिल कर लिया. इसका फायदा भाजपा को मिला और कांग्रेस एवं एनसीपी से आए नेताओं ने भाजपा को जीत दिलाई. अगर ये नेता कांग्रेस और एनसीपी में रहते तो भाजपा को कम से कम छह सीटों का नुकसान होता.
भाजपा के कई सांसदों ने अपने क्षेत्र में काम नहीं किया था जिससे वहां की जनता नाराज थी. ऐसे सांसदों में केंद्रीय मंत्री हंसराज अहिर भी थे जिन्हें चंद्रपुर संसदीय सीट से कांग्रेस के सुरेश धानोरकर ने हराया है. माढ़ा से भी भाजपा के लिए जीतना आसान नहीं था. इसलिए उसने रणजित सिंह नाईक को आयात किया तब भाजपा को जीत का मुंह देखना पड़ा. केंद्रीय मंत्री अनंत गिते को हार मिली है जो शिवसेना के रायगड से सांसद थे. उन्हें एनसीपी के सुनील तटकरे ने हाराया है.
इस चुनाव में भाजपा से गठबंधन करने का फायदा शिवसेना को नहीं हुआ है. क्योंकि गठबंधन करने से शिवसेना और भाजपा दोनों की ताकत बढ़ी. लेकिन शिवसेना को भाजपा का साथ मिलने के बावजूद कई सीटों पर मशक्कत करनी पड़ी और उसे भाजपा से गठबंधन धर्म का लाभ नहीं मिला. इसलिए औरंगाबाद सीट पर शिवसेना के प्रत्याशी चंद्रकांत खैरे को पार्टी प्रमुख उद्धव ठाकरे से भाजपा के नेता रावसाहेब दानवे के खिलाफ शिकायत करनी पड़ी थी. वोटों की गिनती में साफ दिखा कि दानवे के रिश्तेदार हर्षवर्धन जाधव की झोली में खैरे के हिस्से के वोट गए. खैरे ने आरोप लगाया था कि दानवे के परिवार ने हर्षवर्धन के लिए खुलकर काम किया था. खैरे को वंचित बहुजन आघाड़ी के इम्तियाज जलील ने हरा दिया. हालांकि, इस चुनाव में एनसीपी प्रमुख शरद पवार को भी झटका लगा है. पवार की तीसरी पीढ़ी यानी अजित पवार के बेटे पार्थ पवार को भारी हार मिली है. लेकिन बारामती से पवार की बेटी सुप्रिया सुले ने जीत दर्ज कर ली.
भाजपा और शिवसेना ने भले ही अपनी सीटें बचा ली हैं. लेकिन उनके सामने अब राज्य का विधानसभा चुनाव भी है. शिवसेना निश्चित रूप से यह मंथन करेगी कि उसने वोट पाया बावजूद इसके उसे भाजपा का छोटा भाई कहलाने का ही मौका मिला है. उधर कांग्रेस और एनसीपी के लिए चिंतन का विषय है कि अगले विधानसभा चुनाव में कैसे बेहतर प्रदर्शन करना है. अगर इस पर गंभीरता नहीं दिखाई तो विधानसभा चुनाव में खराब प्रदर्शन होगा. राजनीतिक विश्लेषक जतिन देसाई इस चुनावी नतीजे पर कहते हैं कि यह अप्रत्याशित है. मोदी लहर के बावजूद भाजपा को भी उम्मीद नहीं थी कि महाराष्ट्र में इस तरह के नतीजे आएंगे. कांग्रेस-एनसीपी प्रदर्शन तो कमजोर है. लेकिन उसे सबसे ज्यादा नुकसान प्रकाश आंबेडकर के वंचित बहुजन आघाड़ी ने पहुंचाया है. नांदेड़ में कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष अशोक चव्हाण की हार में भी आघाड़ी की भूमिका है. वहां आघाड़ी के उम्मीदवार भिंगे यशपाल नरिसंगराव ने एक लाख 61 हजार 910 वोट बटोरे.
जबकि चव्हाण सिर्फ 50 हजार वोटों से हार गए. राज्य में जब भी सेकुलर वोट के बंटवारे होंगे तो उससे कांग्रेस-एनसीपी को ही नुकसान होगा. इस बार चुनाव में भाजपा-शिवसेना के खिलाफ किसान, मजदूर, मुस्लिम और दलित वर्ग थे. लेकिन हिंदुत्व और राष्ट्रवाद के नाम पर चुनाव का माहौल बनाया गया. आर्थिक मुद्दों पर चुनाव नहीं था. इससे भाजपा और शिवसेना मजबूत दिखे. अब जहां तक कांग्रेस-एनसीपी और भाजपा-शिवसेना के गठंबधन के भविष्य की बात है तो यह गठबंधन रहेगा ही. लेकिन खासकर कांग्रेस-एनसीपी गठबंधन को चिंतन करना पड़ेगा कि कहां गलती हुई है. थोड़ा सचेत रहते हुए काम करना पड़ेगा और अभी से विधानसभा के साथ अगले लोकसभा चुनावों के लिए भी तैयारी करनी पड़ेगी.