नई दिल्ली। उत्तराखण्ड और कर्नाटक के बाद अब गुजरात में भी नौबत ऐसी आई कि वहां के मुख्यमंत्री ने भी अपनी कुर्सी गंवाई। जी हां गुजरात के मुख्यमंत्री विजय रूपाणी ने आज अपने पद से इस्तीफा दे दिया है। रूपाणी ने ऐसे समय में इस्तीफा दिया जब गुजरात चुनाव में महज सवा साल ही शेष रह गये थे। गुजरात में अचानक हुए इस घटनाक्रम के बाद देश और राज्य की राजनीति में चर्चाओं का बाजार काफी गर्म हो चला है। हालांकि इस्तीफा देने के बाद रूपाणी ने कहा कि “मैंने अपने पद से इस्तीफा दे दिया है। मैंने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा अध्यक्ष के मार्गदर्शन में पार्टी संगठन में काम करने की अपनी इच्छा के बारे में शीर्ष नेतृत्व को बता दिया है। भाजपा प्रेक्षक यहां (गांधीनगर) आए थे और पार्टी जल्द ही नए मुख्यमंत्री के नाम पर फैसला करेगी।” जबकि इस मामले में गुजरात की राजनीति के दिग्गज रहे शंकर सिंह वाघेला ने भाजपा के केन्द्रिय नेतृत्व को आड़े हाथों लेते हुए कहा कि गुजरात में केंद्र ने अपनी पसंद का नेतृत्व थोपा तो यूपी के साथ हो सकते हैं विधानसभा चुनाव।
गौरतलब है कि विजय रूपाणी जब गांधीनगर में पाटीदार समुदाय के एक शैक्षिक परिसर के शिलान्यास समारोह में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ थे तो किसी को अंदाजा नहीं था वे कुछ घंटे बाद इस्तीफा दे देंगे। इस कार्यक्रम में पीएम मोदी ने वर्चुअल संबोधन किया था। गुजरात में अगले साल होने वाले विधानसभा चुनाव से पहले राज्य में मुख्यमंत्री बदला है। मुख्यमंत्री पद से विजय रूपाणी के इस्तीफे के नाम चार नामों पर मंथन जारी है। बीते कुछ समय से गुजरात में नेतृत्व परिवर्तन की अटकलें लग रही थीं। आखिर ऐसा क्या हुआ कि भाजपा को उत्तराखंड और कर्नाटक के बाद गुजरात में नेतृत्व परिवर्तन की जरूरत महसूस हुई।
सूत्रों का कहना है कि प्रदेश भाजपा अध्यक्ष सीआर पाटिल के पद संभालने के बाद रूपाणी को लेकर प्रदेश से अंसतोष की कई आवाजें सुनाई दीं। लिहाजा सीआर पाटिल ने पार्टी को यह साफ कर दिया कि अगर अगले साल चुनाव में बड़ी जीत हासिल करनी है तो फिर नेतृत्व परिवर्तन पर विचार करना ही होगा। दूसरी तरफ रूपाणी भले ही मृदुभाषी मुख्यमंत्री रहे हों, लेकिन राजनीतिक पर्यवेक्षकों का मानना है कि इससे उनकी ‘कमजोर’ मुख्यमंत्री होने की छवि बन गई जिससे नौकरशाह महत्वपूर्ण निर्णय लेने में हावी हो गए।
दरअसल पिछले विधानसभा चुनाव में यहां भाजपा को जैसे-तैसे बड़ी मुश्किल से जीत हासिल हुई थी। भाजपा ने राज्य में लगातार छठी बार जीत तो दर्ज की लेकिन उसे 99 सीटों पर संतोष करना पड़ा था, जबकि कांग्रेस को इस चुनाव में 77 सीटें मिली थीं। गुजरात में विधानसभा की 182 सीटें हैं। पिछले तीन चुनाव में भाजपा की सीटें यहां लगातार घट रही थीं और कांग्रेस आगे बढ़ रही थी। 2007 में भाजपा ने 117 सीटें जीती थीं, जो 2017 के चुनाव में घटकर 99 पर आ गई। वहीं कांग्रेस ने 2007 के चुनाव में 59 सीटें जीती थी, जो 2017 के चुनाव में बढ़कर 77 हो गईं। गुजरात नरेंद्र मोदी का गृहराज्य माना जाता है ऐसे में यहां चुनाव जीतना भाजपा के लिए प्रतिष्ठा के सवाल से कम नहीं।
नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा ने 2002 का पहला गुजरात विधानसभा चुनाव लड़ा था। जिसमें प्रचंड बहुमत के साथ सत्ता में वापसी की। इस विधानसभा चुनाव में भाजपा को 127 सीटें मिली थीं। यह अब तक भाजपा का सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन रहा था। गुजरात की सत्ता में भाजपा पहली बार 1995 में आई थी। जिसका श्रेय केशुभाई पटेल को दिया जाता है। 1995 में राज्य की 182 सीटों में बीजेपी को 121 सीटें मिली थी।
वहीं पार्टी के जानकार नेताओं की मानें तो उनके अनुसार किसी भी राजनीतिक दल का पहला लक्ष्य होता है चुनाव जीतना और चुनाव जीतने के लिए सर्व सहमति के नेतृत्व की बड़ी शर्त होती है। यदि नेतृत्व संतोषजनक नहीं है या किसी भी तरह की सत्ताविरोधी लहर देखी जाती है तो आलाकमान को यह देखना ही पड़ता है कि चुनाव जीतने के लिए क्या किया जा सकता है। कहीं न कहीं रूपाणी पर अच्छा प्रदर्शन करने का दबाव था और वे वैसा सियासी प्रभाव नहीं जमा सके थे जैसी पार्टी को उम्मीद थी। पार्टी चाहती है कि कोई ऐसा मुख्यमंत्री बने जो शीर्ष नेतृत्व की आशाओं और उम्मीद के अनुरूप काम कर जिससे लोग रूपाणी सरकार के कामकाज के बजाए नए मुख्यमंत्री के कामकाज का आकलन करें और उसी नाम पर चुनाव लड़ा जाए।
दरअसल अगर गंभीरता से देखें तो रूपाणी के लिए कोरोना की दूसरी लहर भी उनकी कुर्सी के लिए खतरे की घंटी बजा कर गई। कोरोना की दूसरी लहर के दौरान गुजरात में अव्यवस्था की कई खबरों से प्रधानमंत्री नाराज बताए जा रहे थे। लिहाजा पार्टी नहीं चाहती कि कोई भी ऐसी स्थिति बनी रहे जिससे पार्टी के लिए चुनाव जीतना मुश्किल हो जाए। विशेषज्ञ बताते हैं कि यही बात भाजपा को दूसरी पार्टियों से अलग करती है, वो चुनाव जीतने के लिए नेतृत्व परिवर्तन से भी पीछे नहीं हटती है। जो काम कांग्रेस नहीं कर पाती, वह भाजपा बहुत आसानी से कल लेती है।
इस साल विजय रूपाणी इस्तीफा देने वाले भाजपा के चौथे मुख्यमंत्री हैं। उत्तराखंड में त्रिवेंद्र सिंह रावत की जगह तीरथ सिंह रावत चुने गए तो उन्होंने महज चार महीनों बाद ही इस्तीफा दे दिया। जुलाई में, कर्नाटक से बीएस येदियुरप्पा की कुर्सी चली गई। इतना ही नही रूपाणी के अलावा बाकी इन तीन मुख्यमंत्रियों की कुर्सी भी काफी हद तक उनके असंतोषजनक क्रियाकलापों की ही वजह से गई थी। भाजपा के शीर्ष नेतृत्व के लिए कर्नाटक और उत्तराखंड में मुख्यमंत्री बदलना भी चुनाव जीतने की पहली शर्त के तहत ही लिया गया फैसला था। उत्तराखंड के मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत भी कुर्सी भी इसलिए गई क्योंकि उन्होंने कुछ ऐसे फैसले किए थे जिससे पार्टी को चुनाव में नुकसान होने का डर था। दरअसल रावत ने गढ़वाल के हिस्से गैरसैंण मंडल में कुमांऊ के दो जिलों अल्मोड़ा और बागेश्वर को शामिल करने का फैसला किया था जिसे कुमांऊ की अस्मिता और पहचान पर हमला माना गया।
बीएस येदियुरप्पा चौथी बार राज्य के मुख्यमंत्री बने थे। लेकिन अपने चौथे कार्यकाल में भी वो कुर्सी पर केवल दो साल ही टिक पाए। उनके खिलाफ पार्टी में असंतोष पैदा हो रहा था। सीनियर नेताओं ने उनकी अनदेखी करने का आरोप लगाया था। उन पर भ्रष्टाचार में शामिल होने और उनके बेटे के सरकारी कामकाज में दखल होने के भी आरोप लग रह थे। पार्टी में मुख्यमंत्री के खिलाफ यदि असंतोष हो तो पार्टी के लिए चुनाव जीतना मुश्किल हो सकता है, इसी फॉर्मूले के तहत येदियुरप्पा से मुख्यमंत्री की कुर्सी छीन ली गई। वे 2019 में राज्य के मुख्यमंत्री बने थे।