तुलसी विवाह, माँ तुलसी और भगवान विष्णु का विवाह अनुष्ठान है. इस त्योहार के दौरान कन्यादान समारोह सहित सभी शादी से संबंधित अनुष्ठान किए जाते हैं. माता तुलसी, देवी लक्ष्मी का अवतार कही जातीं है, जो वृंदा के रूप में पैदा हुई थीं. कुछ भक्त अगले दिन कार्तिक शुक्ला द्वादशी पर तुलसी विवाह मनाते हैं.
तुलसी विवाह जीवन में एक बार अवश्य करना चाहिए, ऐसा शास्त्रों में कहा गया है. इस दिन व्रत रखने का भी बहुत महत्व है. इससे पूर्व जन्म के पाप समाप्त हो जाते है ओर पुण्य की प्राप्ति होती है.
तुलसी विवाह में तुलसी जी का विवाह शालिग्राम जी से किया जाता है. शालिग्राम जी भगवान विष्णु के प्रतिरूप ही है. तुलसी को विष्णु प्रिया भी कहते है. तुलसी और विष्णु को पति पत्नी के रूप में माना जाता है. तुलसी के बिना विष्णु भगवान की पूजा अधूरी मानी जाती है.
कार्तिक मास की शुक्ल पक्ष की एकादशी को कार्तिक स्नान करके तुलसी जी व शालिग्राम जी का विवाह किया जाता है. इसी को तुलसी विवाह कहते हैं. इसका व्रत कार्तिक शुक्ल पक्ष की नवमी से शुरू हो जाता है. नवमी से ग्यारस तक अखण्ड दिए जलाये जाते है.
तुलसी विवाह आप स्वयं भी कर सकते है या पंडित जी को बुलवाकर भी तुलसी विवाह करवाया जा सकता है. भक्ति भाव के साथ की गई पूजा कभी व्यर्थ नहीं जाती है.
तुलसी विवाह विधि:
— तुलसी का गमला साफ सुथरा करके गेरू और चूने से रंगकर सजायें.
— साड़ी आदि से सुन्दर मंडप बनाकर गन्ने व फूलों से सजाना चाहिए .
— परिवार के सभी सदस्य शाम के समय तुलसी विवाह में शामिल होने के लिए नए कपड़े आदि पहन कर तैयार हो जाये.
— तुलसी के साथ शादी के लिए शालिग्राम जी यानि विष्णु जी की काली मूर्ति चाहिए होती है. ये नहीं मिले तो आप अपनी श्रद्धानुसार सोने, पीतल या मिश्रित धातु की मूर्ति ले सकते है या फिर विष्णु जी की तस्वीर भी ले सकते है. यदि कोई व्यवस्था ना हो पाए तो पंडित जी से आग्रह करने पर वे मंदिर से शालिग्राम जी की मूर्ति अपने साथ ला सकते है.
— सबसे पहले गणेश जी का पूजन करें, फिर मंत्रो का उच्चारण करते हुए गाजे बाजे के साथ भगवान विष्णु की प्रतिमा को तुलसी जी के निकट लाकर रखे.
— भगवान विष्णु का आवाहन इस मन्त्र के साथ करें–
(यानि हे भगवान केशव, आइये देव मैं आपकी पूजा करूँगा, आपकी सेवा में तुलसी को समर्पित करूँगा. आप मेरे सभी मनोरथ पूर्ण करना)
— तुलसा जी व भगवान विष्णु की प्रतिमा में प्राण प्रतिष्ठा करके स्तुति आदि के द्वारा भगवान को निद्रा से जगाये.
— विष्णु जी को पीले वस्त्र धारण करवाये,पीला रंग विष्णु जी का प्रिय है.
— कांसे के पात्र में दही, घी, शहद रखकर भगवान् को अर्पित करें.
— फिर पुरुष सूक्त से व षोडशोपचार से पूजा करें.
— तुलसी माता को लाल रंग की ओढ़नी ओढ़ानी चाहिए .
— शालीग्राम जी को चावल नहीं चढ़ाये जाते है इसीलिए उन्हें तिल चढ़ाये. दूध व हल्दी का लेप बनाकर शालिग्राम जी व तुलसी जी को चढ़ाये. गन्ने से बनाये गए मंडप की भी दूध हल्दी से पूजा करे.
— विवाह के समय निभाये जाने वाली सभी रस्मे करें .
— तुलसाजी और शालिग्राम जी के फेरे भी करवाने चाहिए.
— साथ ही “ओम तुलस्यै नमः ” मन्त्र का उच्चारण करना चाहिए.
— तुलसी माता की शादी के लिए साड़ी, ब्लाउज, मेहंदी, काजल, बिंदी, सिंदूर, चूड़ा आदि सुहाग का सामान तथा बर्तन चढ़ाये.
— जो भी भोजन बनाया हो वह एक थाली में दो जनो के लिए रखकर फेरो के समय भोग लगाने के लिए रखना चाहिए .
— कन्यादान का संकल्प करें और भगवान से प्रार्थना करें – हे परमेश्वर ! इस तुलसी को आप विवाह की विधि से ग्रहण कीजिये. यह पार्वती के बीज से प्रकट हुई है, वृन्दावन की भस्म में स्थित रही है.
आपको तुलसी अत्यंत प्रिय है अतः इसे मैं आपकी सेवा में अर्पित करता हूँ. मैंने इसे पुत्री की तरह पाल पोस कर बड़ा किया है. और आपकी तुलसी आपको ही दे रहा हूँ. हे प्रभु इसे स्वीकार करने की कृपा करें.
— इसके पश्चात् तुलसी और विष्णु दोनों की पूजा करें.
— कपूर से आरती करे तथा तुलसी माता की आरती
— भगवान को लगाए गए भोग का प्रसाद के रूप में वितरण करे.
— सुबह हवन करके पूर्णाहुती करें . इसके लिए खीर, घी, शहद और तिल के मिश्रण की 108 आहुति देनी चाहिए. महिलाये तुलसी माता के गीत गाती है. उसी समय व्रत करने वाली के पीहर वाले कपड़े पहनाते है.
इसी समय शालीग्राम व तुलसी माता को श्रद्धानुसार भोजन परोसकर भोग लगाना चाहिए, साथ में श्रद्धानुसार दक्षिणा अर्पित की जानी चाहिए .
— भगवान से प्रार्थना करें – प्रभु ! आपकी प्रसन्नता के लिए किये गए इस व्रत में कोई कमी रह गई हो तो क्षमा करें. अब आप तुलसी को साथ लेकर बैकुंठ धाम पधारें. आप मेरे द्वारा की गई पूजा से सदा संतुष्ट रहकर मुझे कृतार्थ करें.
— इस प्रकार तुलसी विवाह का परायण करके भोजन करें. भोजन में आँवला, गन्ना व बैर आदि अवश्य शामिल करें. भोजन के बाद तुलसी के अपने आप गिरे हुए पत्ते खाएँ , यह बहुत शुभ होता है.
तुलसी और शालिग्राम का विवाह कराना विष्णु भगवान की भक्ति का एक रूपक है. इसके लिए जो कथा प्रचलित है वह इस प्रकार है :
तुलसी विवाह पौराणिक कथा
एक बार शिव ने अपने तेज को समुद्र में फैंक दिया था. उससे एक महातेजस्वी बालक ने जन्म लिया. यह बालक आगे चलकर जालंधर के नाम से पराक्रमी दैत्य राजा बना. इसकी राजधानी का नाम जालंधर नगरी था.
दैत्यराज कालनेमी की कन्या वृंदा का विवाह जालंधर से हुआ. जालंधर महाराक्षस था. अपनी सत्ता के मद में चूर उसने माता लक्ष्मी को पाने की कामना से युद्ध किया, परंतु समुद्र से ही उत्पन्न होने के कारण माता लक्ष्मी ने उसे अपने भाई के रूप में स्वीकार किया. वहां से पराजित होकर वह देवी पार्वती को पाने की लालसा से कैलाश पर्वत पर गया.
भगवान देवाधिदेव शिव का ही रूप धर कर माता पार्वती के समीप गया, परंतु मां ने अपने योगबल से उसे तुरंत पहचान लिया तथा वहां से अंतर्ध्यान हो गईं. देवी पार्वती ने क्रुद्ध होकर सारा वृतांत भगवान विष्णु को सुनाया. जालंधर की पत्नी वृंदा अत्यन्त पतिव्रता स्त्री थी. उसी के पतिव्रत धर्म की शक्ति से जालंधर न तो मारा जाता था और न ही पराजित होता था. इसीलिए जालंधर का नाश करने के लिए वृंदा के पतिव्रत धर्म को भंग करना बहुत ज़रूरी था.
इसी कारण भगवान विष्णु ऋषि का वेश धारण कर वन में जा पहुंचे, जहां वृंदा अकेली भ्रमण कर रही थीं. भगवान के साथ दो मायावी राक्षस भी थे, जिन्हें देखकर वृंदा भयभीत हो गईं. ऋषि ने वृंदा के सामने पल में दोनों को भस्म कर दिया. उनकी शक्ति देखकर वृंदा ने कैलाश पर्वत पर महादेव के साथ युद्ध कर रहे अपने पति जालंधर के बारे में पूछा. ऋषि ने अपने माया जाल से दो वानर प्रकट किए. एक वानर के हाथ में जालंधर का सिर था तथा दूसरे के हाथ में धड़. अपने पति की यह दशा देखकर वृंदा मूर्छित हो कर गिर पड़ीं. होश में आने पर उन्होंने ऋषि रूपी भगवान से विनती की कि वह उसके पति को जीवित करें.
भगवान ने अपनी माया से पुन: जालंधर का सिर धड़ से जोड़ दिया, परंतु स्वयं भी वह उसी शरीर में प्रवेश कर गए. वृंदा को इस छल का ज़रा आभास न हुआ. जालंधर बने भगवान के साथ वृंदा पतिव्रता का व्यवहार करने लगी, जिससे उसका सतीत्व भंग हो गया. ऐसा होते ही वृंदा का पति जालंधर युद्ध में हार गया.
इस सारी लीला का जब वृंदा को पता चला, तो उसने क्रुद्ध होकर भगवान विष्णु को ह्रदयहीन शिला होने का श्राप दे दिया. अपने भक्त के श्राप को विष्णु ने स्वीकार किया और शालिग्राम पत्थर बन गये. सृष्टि के पालनकर्ता के पत्थर बन जाने से ब्रम्हांड में असंतुलन की स्थिति हो गई. यह देखकर सभी देवी देवताओ ने वृंदा से प्रार्थना की वह भगवान् विष्णु को श्राप मुक्त कर दे. वृंदा ने विष्णु को श्राप मुक्त कर स्वय आत्मदाह कर लिया. जहां वृंदा भस्म हुईं, वहां तुलसी का पौधा उगा. भगवान विष्णु ने वृंदा से कहा: हे वृंदा. तुम अपने सतीत्व के कारण मुझे लक्ष्मी से भी अधिक प्रिय हो गई हो. अब तुम तुलसी के रूप में सदा मेरे साथ रहोगी. तब से हर साल कार्तिक महीने के देव-उठावनी एकादशी का दिन तुलसी विवाह के रूप में मनाया जाता है. जो मनुष्य भी मेरे शालिग्राम रूप के साथ तुलसी का विवाह करेगा उसे इस लोक और परलोक में विपुल यश प्राप्त होगा.
उसी दैत्य जालंधर की यह भूमि जलंधर नाम से विख्यात है. सती वृंदा का मंदिर मोहल्ला कोट किशनचंद में स्थित है. कहते हैं इस स्थान पर एक प्राचीन गुफ़ा थी, जो सीधी हरिद्वार तक जाती थी. सच्चे मन से 40 दिन तक सती वृंदा देवी के मंदिर में पूजा करने से सभी मनोरथ पूर्ण होते हैं.
जिस घर में तुलसी होती हैं, वहां यम के दूत भी असमय नहीं जा सकते. मृत्यु के समय जिसके प्राण मंजरी रहित तुलसी और गंगा जल मुख में रखकर निकल जाते हैं, वह पापों से मुक्त होकर वैकुंठ धाम को प्राप्त होता है. जो मनुष्य तुलसी व आंवलों की छाया में अपने पितरों का श्राद्ध करता है, उसके पितर मोक्ष को प्राप्त हो जाते हैं.