नई दिल्ली – पिछले कई दशकों में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को सबसे डाइनैमिक प्राइम मिनिस्टर माना जाता है। भारत में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता काफी ज्यादा है। उनकी पहचान हमेशा दो चीजों को लेकर रही- पहला राष्ट्रवाद और दूसरा, देश की अर्थव्यवस्था को ऊंचाई पर ले जाने का उनका पक्का वादा। हालांकि दूसरी पहचान अब धीरे-धीरे कमजोर होती जा रही है।
पिछले दो वर्षों में भारत के ग्राहकों के भरोसे में गिरावट देखी गई है। कंस्ट्रक्शन की रफ्तार धीमी हुई है। निश्चित निवेश की दर गिरी है, कई फैक्ट्रियां बंद हो गईं और बेरोजगारी का आंकड़ा बढ़ता चला गया। अंगुलियां मोदी की ओर उठाई जा रही हैं। लगभग सभी अर्थशास्त्री इस बात को लेकर सहमत हैं कि प्रधानमंत्री की ओर से लिए गए दो सबसे बड़े नीतिगत फैसलों ने भारत की ग्रोथ को धीमा कर दिया है। पहले अचानक नोटबंदी की गई और फिर एक साल के भीतर ही टैक्स को लेकर बड़ा कदम उठाया गया। जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय नई दिल्ली के अर्थशास्त्र के प्रोफेसर हिमांशु कहते हैं कि चीजें खराब, खराब और खराब होती जा रही हैं। अब भी अर्थव्यवस्था की हालत ठीक नहीं है, पर असफलता से काफी दूर है। न्यूयार्क टाइम्स ने मोदी की लोकप्रियता और उनके फैसले पर लोगों की राय को लेकर एक रिपोर्ट प्रकाशित की है। इसके मुताबिक शेयर मार्केट लगातार चढ़ रहा है। देश में कई रेल, रोड और पोर्ट के प्रोजेक्ट्स शुरू हो रहे हैं और विदेशी निवेश अप्रैल से सितंबर के बीच में 2016 के इसी अवधि की तुलना में 17 फीसदी बढ़ा है।
सरकार ने अनुमान व्यक्त करते हुए कहा था कि देश का जीडीपी 2017-18 वित्त वर्ष में 6.5 प्रतिशत रहेगा। हालांकि इस आंकड़े को संतोषजनक नहीं कहा जा सकता है, क्योंकि यह देश के पिछले चार वर्षों के इतिहास में सबसे कम है। यह सब ऐसे समय में हो रहा है जब भारत की अर्थव्यवस्था की रफ्तार को पाने की चाहत दुनिया के कई देश रखते हैं। नौकरियों के अवसर मुहैया कराना देश की सबसे प्रमुख राजनीतिक प्राथमिकता है। उधर, मोदी हर साल एक करोड़ नौकरियां देने के अपने वादे से काफी दूर हैं।
खास बात यह है कि ऐसा नहीं लगता है कि मोदी की नीतियों से बड़ी संख्या में भारतीयों पर सकारात्मक प्रभाव पड़ा है और गड़बडि़यां बढ़ रही हैं। इससे भी बड़ा मुद्दा है सामाजिक तनाव खासतौर से जो हिंदुओं और मुसलमानों में मतभेद की दीवार खड़ी करता है। ऊंची और नीची जाति को लेकर भी तनाव बढ़ता है। आशंका इस बात की है कि पीएम भी खुद हिंदू राष्ट्रवाद पर ज्यादा जोर देने लगे हैं और उनकी दूसरी पहचान की चमक क्षीण होने लगी है।